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राम का बाज़ारवाद

 राम का बाज़ारवाद और प्रेषण-प्रेक्षण का अंकेक्षण



            कुमार विश्वास का कवि उनके प्रखर वक्ता के व्यक्तित्व के नीचे दब गया है। अपनी धाराप्रवाह वक्तृत्व शैली, अपने लोकरंजक मुहावरों, अपनी विलोम और वाम टिप्पणियों के कारण उनका बाज़ार-मूल्य सब परफॉर्मर प्रोफेसनल्स से उच्चतम है। कविमंच पर संचालन की क़ीमत को अब तक की सबसे ऊंची गद्दी पर ले जाने का श्रेय कुमार विश्वास को है। यह कविता के बल पर नहीं हुआ है, इसे गाहे ब गाहे सभी स्वीकार करते हैं।
            बाज़ार के मूड को समझना और अपनी कुशल विपणन-शैली के माध्यम से, बाज़ार में नयी वस्तु को उतारकर ऊंचे दामों में बेचना ही इस युग की उपलब्धि और सफलता है।
           डॉ. विश्वास शर्मा ने अपनी क्षमता को पहचाना और बाज़ार में बढ़ती मांग के अनुकूल वे वक्ता के रूप में 'राम-कथा' लेकर उतर गए। अपने अज़ीब 'पुराधुनातन' परिधान में वे राम कथा का नया संस्करण प्रस्तुत करने लगे। राम का चरित्र ही ऐसा है कि प्रेम का कवि रामकथा का प्रवचन-कर्ता बन गया।
         राम-कथा में संस्करणों की असंख्य सम्भावना भरी पड़ी है। जिस प्रकार 'रामचरित-मानस' की चौपाइयां और दोहे मनचाहे रागों और तालों में गायी/गाये जा रही/ रहे हैं, वैसे ही रामकथा किसी भी दृष्टिकोण से बुनो, वह रामकथा ही हो जाती है।
           श्री वाल्मीकि से लेकर श्री तुलसीदास, श्री रामकिंकर से लेकर श्री रामभद्राचार्य और श्री मोरारी बापू से लेकर श्री शर्मा कुमार विश्वास तक 'रामकथा' ने जितने भी राग और ताल चुने, सब में 'जनता जनार्दन' तालबद्ध होकर तालियां बजाती रही। हजारों सालों से चली आ रही यह परम्परा आज भी अबाध रूप से चल रही है यह आश्चर्य का विषय नहीं है, आत्म-मुग्धता का विषय है। वास्तव में बिना आत्ममुग्ध हुए कोई विधा सार्थक भी नहीं होती और सफल भी।
          रामकथा के सैकड़ों संस्करण प्रकाशित होकर सामने आए हैं। पुराणों के संस्रोतों से सूत्र लेकर पहले ऋषि वाल्मीकि ने संस्कृत में अष्टाध्यायी 'रामायणम्' की रचना की, जिसमें हर अध्याय को प्रसंगानुकूल सर्गों में बांटकर विस्तार का निर्वाह किया। इस संस्कृत संस्करण का अनुकरण और अनुसरण करते हुए श्री तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस का लोकभाषा अवधी में पद्यानुवाद किया। (वाल्मीकि और तुलसी रामायण का तुलनात्मक अध्ययन अन्यत्र) ब्रिटिशकाल में फादर कामिल बुल्के ने भी अंग्रेजी में राम कथा लिखी जो लोकप्रिय भी हुई और चर्चित भी।
            आधुनिक काल में श्री मैथिलीशरण गुप्त ने रामकथा को 'साकेत' शीर्षक से हिंदी और संस्कृत के छंदविधान और गीत में निबद्ध कर प्रस्तुत किया।
         समकालीन युग में लेखक श्री रामकुमार भ्रमर ने रामकथा की उपन्यास श्रृंखला प्रस्तुत की। अभिनेता और कवि आशुतोष राणा ने भी रामकथा पर कोई पुस्तक लिखी है, जिसके प्रकाशन की जानकारी मुझे नहीं है

       भोपाल में एक पत्रसमुह द्वारा आयोजित कविसम्मेलन में श्री कुमार विश्वास के संचालन में एक कवि प्रस्तुत हुए श्री शकील आज़म। उन्होंने उर्दू की नज़्म शैली में पात्रों के माध्यम से राम कथा प्रस्तुत की है। शीर्षक जंगल यात्रा या राम-वनवास रखा है। अहल्या और उर्मिला शीर्षक नज़्म सुनाते हुए उन्होंने बताया कि एक महीने के भीतर 'राम वनवास' पुस्तक के प्रथम संस्करण की सभी प्रतियां राम भक्तों ने खरीदकर एक नया कीर्तिमान खड़ा किया है। कृष्णबिहारी नूर की गदगद शैली में आत्मविश्वास से भरे शायर शकील आज़म ने भोपाल की जनता के प्रति भरोसा जताते हुए कहा कि इस महीने के अंत तक भोपाल के घर घर में उनकी पुस्तक की प्रतियां अवश्य होंगी। 'राम भक्त' उनका भरोसा नहीं टूटने देंगे यह मेरा भी भरोसा हो चला है।

          मुस्लिम शायर शकील आज़म ने अपना प्रेक्षण किया, अपना मौलिक दृष्टिकोण अपनाया और अपनी ही शैली में उसका सम्प्रेषण किया जिसका स्वागत भी नए 'राम राष्ट्र' में वाणिज्यिक दृष्टि से 'भव्य' हुआ है। हम इस बात का रोना रोते थे कि कोई किताब नहीं पढ़ता, किताबें ख़त्म हो रही हैं, हिंदी प्रकाशनों पर ताले लग रहे हैं। देवताओं का प्रकाशन 'गीता प्रेस' बंद होने के कगार पर थी। मंदिर निर्माण के बाद रामचरित मानस की मांग ने उनका सारा नुकसान पूरा कर दिया और दोबारा उठाकर खड़ा कर दिया। यानी 'राम' ने न केवल मंदिर उद्धार किया बल्कि 'मुद्रण उद्धार' भी कर दिया है। एक मुस्लिम कवि जिसके 'होता' (हवन कर्ता) हैं और पुरोहित (पूजा करानेवाला) हैं हिंदी के एक उद्योगपति कवि श्री कुमार विश्वास जी। राम पर शम्बूक वध का कलंक भले ही न छूट पाया हो, पर भारत के हिंदुत्व के हाथों में लगे ख़ून के धब्बे ज़रूर धुल गए। आज तुलसीदास जी की वे पंक्तियां सिद्ध हो गईं जहां वे कहते हैं-
             राम राज बैठे त्रैलोका। 
                हर्षित भए गए सब सोका॥                             
                बयरु न कर काहू सन कोई। 
                राम प्रताप बिषमता खोई॥
दो.       वरनाश्रम निज निज धरम, निरत वेद-पथ लोक।
          चलहिं सदा पावहिं सुखहिं, नहिं भय रोग न सोक॥

        तुलसीदासजी भी अद्भुत लिख गए। राम राज पर 'त्रिलोक के स्वामी' के बैठते ही आपस का बैर मिट गया। विषमता कहीं दिखाई नहीं देती।  तुलसीदासजी कहते हैं कि वेदपथ पर चलने से और वर्णाश्रम तथा अपने अपने धर्म पर चलने से ही हमेशा सुख मिलेगा। न किसी प्रकार का भय होगा, न रोग होगा, न कोई शोक होगा।
          दैहिक दैबिक भौतिक तापा
          राम-राज काहुक नहि ब्यापा।।

            मुग़ल काल में मुग़लेआज़म अकबर के शासन काल में रची गईं ये पंक्तियां आज कितनी सार्थक हैं, यह सोचकर ही रोमांच होता है। ये पंक्तियां उन तक पहुंचा देनी चाहिए जो बदलती हुई परिस्थिति, रामराज, मनुस्मृति, हिंदुत्व आदि से अपने अस्तित्व के लिए चिंतित और भयभीत थे, डर रहे थे। वर्णाश्रम और धर्म का पालन करो, देखो कैसे सुख पाओगे और भयमुक्त हो जाओगे।
           शम्बूक भी वाल्मीकि की भांति कथा गाएंगे और रामराज में निर्भय हो जाएंगे।

@ हर्षवर्धन क्षणक्षणानंद,
२१.०२.२४

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