नागपंचमी त्यौहार हमारी ‘सांस्कृतिक विरासतों में एक’ प्रतिनिधि-त्यौहार है। विदेशों में भारत ‘संपेरों के देश’ के रूप में जाना जाता है। ऐनाकोंडा और कोब्रा जैसे ख़तरनाक सांपों को विदेशी महत्व का समझा जाता है लेकिन ‘नागलोक’ को भारत का ही पर्याय माना जाता है।
मैं कैसे भूल सकता हूं कि हमारी पाठशालाओं में पहला महत्वपूर्ण आयोजन ‘नागपंचमी’ का ही होता था। हम अपनी पत्थर की स्लेटों पर खड़िया की शलाकाओं से ‘नाग-देवता’ यानी ‘ंिकंग-कोबरा’ की आकृति बनाते थे, जिसमें हमारे अभिभावक योगदान करते थे और फिर उसे हम स्कूलों में ले जाते थे। वहां सारे स्लेटी नागों की सामूहिक पूजा होती थी और हमारे पैसों को इकट्ठा करके बुलवाए गए पानीवाले नारियलों की बलि देकर मीठी चिरौंजी के साथ उसका प्रसाद वितरित किया जाता था।
मैंने हमेशा सोचा है और हमेशा सोचता रहूंगा कि नागों की पूजा क्यों? इतने बचपन में क्यों? जबकि विद्या की देवी सरस्वती बतायी जाती हंै और महाविद्यालयों में उसे तब मनाया जाता है, जब वैसी विद्या की आवश्यकता नहीं रहती, जैसी बचपन को चाहिए। महाविद्यालयों में सरस्वती पूजा मौज का त्यौहार है, डिस्को म्यूजिक और चंदे की मौज का त्यौहार। वह पूर्णतः युवकानंद के लिए समर्पित त्यौहार है, जिसमें विद्या का कुछ भी योगदान नहीं है। बच्चों के स्कूलों में भी सांस्कृतिक उत्सव के रूप में उसे युवा शिक्षक-शिक्षिका बच्चों को एकत्र कर मनाते हंै।
परन्तु नाग-पंचमी? बच्चों की पाठशालाओं में इसे क्यों मनाया जाता है? विशेष तौर पर ग्रामीण और कस्बाई स्कूलों में इसे धूमधाम से मनाया जाता है। सवाल फिर वही कि क्यों? क्या इसलिए कि भारत की छबि सांपों और संपेरों के देश के रूप में है? हमारे तो प्रतीक और बिंब भी सांप और नाग हैं। भारत के दो प्रतिनिधि राष्ट्रीय सत्तावादी राजनैतिक दलों को राजनीति के समीक्षक ‘एक नागनाथ तो दूसरा सांपनाथ’ के रूप में उल्लेखित करते हैं।
साहित्य में सेना से रिटायर्ड एक कवि ने सांपों पर एक कविता लिखी-
‘सांप तुम न सभ्य हुए, न शहरों में रहे,
फिर विष कहां पाया? काटना कहां सीखा?’
सापों के देश में यह कविता बहुत प्रसिद्ध हुई। इस कविता से कवि भी एक प्रयोगवादी कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। अर्थात् सांप किसी देश और उसके प्रयोगधर्मियों की प्रसिद्धि का कारण है।
संभवतः यही कारण है कि पाठशालाओं में नाग-पंचमी का उत्सव मनाकर, बच्चों में नागों की पूजा के संस्कार डाले जाते हैं। ग्रामीणी और शहरी इलाक़ों में सांप के विष को झाड़-फूंककर उतारने वालेे ओझा तथा बैगाओं की रैली निकलती है। यह झाड़-फूंक से ठीक हुए लोगों की समापन किस्त होती है।
पहलवानों का दंगल भी इसी दिन आयोजित होता है। सांपों और नागों के उत्सव में पहलवानी का क्या औचित्य? बिना हाथ पैर वाले नागों के सामने पहलवानी के दांव-पेंच क्या काम आते होंगे भला? ये बात और है कि भारत जितना सांपों के लिए प्रसिद्ध है, उतना पहलवानों के लिए भी। दारासिंह ने इस कला में विश्व स्तर के कीर्तिमान स्थापित किए। मगर सांप और पहलवानी में कोई समानता नज़र नहीं आती। सांप और पहलवान की सफलताओं का राज़ उनका फुर्तीला होना है। लेकिन एक दूध पीकर अपने देश के लिए कीर्तिमान लाता है। दूसरा दूध पीकर भी विष ही उगलता है। उदाहरणार्थ - प्रेमचंद की प्रसिद्ध कथा ‘मंत्र’ में डा.ॅ चड्ढा के बेटे की कहानी।
कहानी तो महाभारत की भी नागों के योगदान पर है। कृष्ण के नाती परीक्षित को तक्षक नाग डसनेवाला है। वेदव्यास परिक्षित के ‘मृत्यु-भय’ को मोक्ष के ‘दिव्य-मनोविज्ञान’ से दूर करने के लिए महाभारत की कथा सुनाते हैं। परिक्षित को आत्मबोघ होता है और वह मृत्यु को वरण करने योग्य हो जाता है।
अगर यह सोचकर कि हमारे बच्चों का आगे चलकर कदम-कदम पर तक्षकों से सामना होगा, उन्हें मानसिक रूप से सांपों और नागों के मुक़ाबले तैयार किये जाने के लिए, बचपन की कोरी शिला-पट्टिकाओं पर नागों की आकृतियां बनवाकर नागपंचमी का उत्सव मनाया जा रहा है, तो ठीक है। मगर फिर सवाल अपना फन उठाता है कि ‘नाग-पूजा’ क्यों? अपने अंदर के भय से घबराकर दूसरों पर आक्रमण करनेवाले नागों की पूजा क्यों जो प्रकृति द्वारा आत्मरक्षा के लिए दिए गए ‘हथियार’ का अकारण, अविवेकपूर्वक, बिना सोचे समझे निर्दोषों पर दुरुपयोग करता है। माना कि आतंकवाद, राजनैतिक प्रतिशोध और अपराधवाद, नक्सलवाद, जातिवाद, सांस्कृतिक-संप्रदायवाद, इतिहासवाद, परिवादवाद, सेना और पुलिस का सुरक्षा के नाम पर स्त्रियों पर जुल्म, रुपयों के लिए बिकते न्याय आदि ‘ये सब’ और ‘अन्य अनेक अमानवीय कुकृत्य’ नाग और तक्षकों के प्रतीक हैं, मगर इनसे ‘वोटर-युग’ कीे जंजीरों में जकड़े कमज़ोर बच्चे कैसे लड़ पाएंगे? उन्हें परीक्षित पुत्र जनमेजय के नागयज्ञ की शिक्षा दी जानी चाहिए, जिसमें सारे नाग स्वयमेव आकर भस्म हो जाएं।
जनमेजय का ‘नाग-यज्ञ’ एक कथा है, तथ्य नहीं। इसलिए नागपंचमी में नागपूजा सिखाई जाती है। जिनसे जीत नहीं सकत,े उन्हें पूजने लगो। हमारे यहां यही संस्कृति चली आ रही है।
यद्यपि नागों की सर्वाधिक उपस्थिति महाभारत-काल में ही हुई है। रामायण काल में संभवतः नागों की संस्कृति उत्पन्न अथवा विकसित नहीं हुई थी। एक दो दृष्टांत ही इस विषय में मिलते है। एक, लक्ष्मण को शेष नाग का अवतार कहा गया है। दूसर,े पाताल-प्रकरण में अहिराज यानी सर्पों के राजा अहिरावण का उल्लेख हुआ है। यहां तक कि हनुमान की मुठभेड़ भी मगरमच्छों की रानी सुरसा से हुई। हनुमान का किसी भयानक नाग से सामना नहीं हुआ। हो भी नहीं सकता था क्योंकि भारतीय पुराणवाद के अनुसार हनुमान स्वयं शंकर के अवतार है। शंकर का कण्ठहार नाग है। बाजुबंद नाग है। जूड़ा का बंधन नाग है। नाग उनके आभूषण हैं।
केवल द्वापर में नागों का खूब विकास हुआ। कृष्ण का उनसे अच्छा आमना सामना भी होता रहा। बलभद्र जो उनके बड़े भाई थे, वे स्वयं शेषनाग के अवतार थे। बचपन में एक कालिया नामक काले नाग से उनका संग्राम प्रसिद्ध है। तक्षक और नागयज्ञ का जिक्र हो चुका है। त्रिदेवों में शंकर नागों को गले में डाले घूमते थे तो विष्णु की प्रिय शय्या शेषनाग ही थी। कुलमिलाकर, हमारी संस्कृति ही नाग संस्कृति है।
मुझे याद है, मैं जब दसवीं का छात्र था, मेरे एक शिक्षक हुआ करते थे, जो हमें रसायन-शास्त्र और गणित पढ़ाते थे। उनके आतंकवाद से त्रस्त बच्चों ने प्रतिरोध में कुछ किया होगा। उन्होंने एक्स्ट्रा-क्लास के नाम पर सारे बच्चों को घर बुलवाकर एक ही बात कही-‘‘मैं वो नाग हूं, जिसका काटा पानी भी नहीं मांगता।’’ सारे बच्चे समझ गए कि पे्रक्टिकल में आंतरिक वीक्षक के रूप में उन ‘नागराज’ का क्या महत्व है। बच्चों ने उन्हंे तात्कालिक रूप से पूजनीय बना लिया और ‘दोनों’ में दूध पिलाया। दूध पीना और पिलानेवालों को डसना हमारी प्राकृतिक और मनोवैज्ञानिक परम्परा है तथा नागपंचमी का त्यौहार हमारी सांस्कृतिक विरासत।
अगले महीने नागपंचमी है। कच्चा दूध नागों को पिलाने और कच्चा नारियल खुद खाने का दिन।
और एक अद्भुत संयोग देखिए। अगला महीना अगस्त है। अगस्त कोई अंग्रेजी महत्व के व्यक्ति रहे होंगे, लेकिन एक ऋषि भी भारत में हुए हैं। उन्होंने विन्ध्याचल का कद छोटा किया था। नागों के मामले में उनके योगदान की कथा मुझे पता नहीं, लेकिन कच्चे घरों में जहां नाग बेखटके आकर आतंक फैला सकते हैं वहां एक पंक्ति लिखी जती है-‘अगस्त मुनी की आन’ अर्थात् तुम्हें अगस्त मुनि की कसम, इससे आग मत बढ़ना। ऐसा माना जाता है, कि हिन्दी पढ़े-लिखे होने से भारतीय नाग, जहां यह लिखा होता है ‘अगस्त मुनि की आन’, उन घरों में प्रवेश नहीं करते। ओह, शायद इसीलिए बच्चों की स्लेटों में नाग होते हैं। वे सरककर बाद में आस्तीनों में चले जाते हैं। जो लोग आस्तीन चढ़ाते हैं, वे शायद अपने अंदर के नागों को सामनेवाले पर छोड़ते हैं कि जा डस ले।
तो कृपया आस्तीनों से सावधान रहें और नागपंचमी की शुभकामनाएं स्वीकार करें। हेल कोबरा!! मंगलवार, 9 जुलाई 2013, प्रातः 9 बजे
और एक अद्भुत संयोग देखिए। अगला महीना अगस्त है। अगस्त कोई अंग्रेजी महत्व के व्यक्ति रहे होंगे, लेकिन एक ऋषि भी भारत में हुए हैं। उन्होंने विन्ध्याचल का कद छोटा किया था। नागों के मामले में उनके योगदान की कथा मुझे पता नहीं, लेकिन कच्चे घरों में जहां नाग बेखटके आकर आतंक फैला सकते हैं वहां एक पंक्ति लिखी जती है-‘अगस्त मुनी की आन’ अर्थात् तुम्हें अगस्त मुनि की कसम, इससे आग मत बढ़ना। ऐसा माना जाता है, कि हिन्दी पढ़े-लिखे होने से भारतीय नाग, जहां यह लिखा होता है ‘अगस्त मुनि की आन’, उन घरों में प्रवेश नहीं करते। ओह, शायद इसीलिए बच्चों की स्लेटों में नाग होते हैं। वे सरककर बाद में आस्तीनों में चले जाते हैं। जो लोग आस्तीन चढ़ाते हैं, वे शायद अपने अंदर के नागों को सामनेवाले पर छोड़ते हैं कि जा डस ले।
तो कृपया आस्तीनों से सावधान रहें और नागपंचमी की शुभकामनाएं स्वीकार करें। हेल कोबरा!! मंगलवार, 9 जुलाई 2013, प्रातः 9 बजे
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