पूर्वकथा- तरह तरह की मनःस्थितियों के चलते चलते अंततः शववाहन में शव को डालकर शवयात्रा शुरू हुई।
होता क्या है कि जीते जी हमें एक से अधिक शवयात्रा में शामिल होना पड़ता है। शवयात्रा में सभी को शामिल होना चाहिए। जान पहचान का हो ना हो, समय है तो किसी परिचित की शवयात्रा में शामिल हो जाना चाहिए। इससे बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
अच्छा आप कुछ कहना चाहते हैं?
मानता हूं आपकी बात। इतना फालतू वक्त किसके पास है? अपनों की, अपने पहचान वालों की शवयात्रा में शामिल जोने का वक्त ही नहीं है तो फिर पराए, अनजाने लोगों की शवयात्रा में शामिल कौन बेवकूफ होगा। यह सुझाव मूर्खतापूर्ण है।
लेकिन देखिए फिर भी कभी शामिल होकर.....सीखना तो जीवन भर चलता है सर! चलिए मैं आपको एक अपरिचित की शवयात्रा में लिए चलता हूं। आपके कीमती समय का ख्याल रखकर बहुत ही संक्षिप्त शवयात्रा में लिवाने आया हूं। मेरे साथ तो चल सकते हैं न.? जल्दी छोड़ दूंगा। ....तो फिर आइए.....
2. माया की गाड़ी
एक मुहावरा है- कोई कंधा देने वाला ना रहा।
इसी भाव और अभाव पर ‘पानी देनेवाला’ भी एक मुहावरा है।
इस समय मैं ‘कंधे देने वाले’ मुहावरों को लपकते झपकते शवशायिका यानी ठठरी उर्फ अरथी को कंधा देने की होड़ में मचलते उछलते देख रहा हूं। सारा वातावरण ‘राम नाम सत्त है, सत्त बोलो गत्त है’ के नारे से गुंजायमान है। नारे लगानेवाले सभी लोग सत्यवादी व्यापारी हैं। मैं सत्य का जीवित-दर्शन तो नहीं कर सका, मरा हुआ सत्य मेरे सामने से जा रहा है। चार ही कंधों पर नहीं बल्कि कई कई धक्का मुक्की करते कंधों पर चढ़कर। ‘क्या सत्त की यही गत्त होती है?’ मेरे जिज्ञासु-मन में बिजली चमकने जैसा यह प्रश्न चमका और लुप्त हो गया। मैं अपने पर्यावरण में लौट आया।
वातावरण पर्याप्त मात्रा में सात्विक बन चुका है। लोग युक्तेश भाई के शव को शववाहन तक पहुंचाने के लिए कंधे से कंधा भिड़ाकर सहयोग प्रदान कर रहे हैं।
इस दृश्य का मुझपर बड़ा क्रांतिकारी प्रभाव पड़ता है। मैं बने हुए सात्विक वातावरण की गरिमा बनाए रखने के लिए आवश्यक मात्रा में गंभीर हो जाता हूं और अपने भारतीय भाइयों की वातावरण निर्माण-कला के प्रति कृतज्ञता से भर जाता हूं। सोच रहा हूं ‘‘मैं भी कंधा दे दूं क्या?’’ पर कंधों के दर्द के ख्याल से मैं ऐसा कर नहीं पाता। भले ही व्यक्ति मर गया है उसे क्या पता चलेगा कि मैं स्वस्थ कंधे दे रहा हूं या दर्दीले कंधे। फिर सोचता हूं, दर्द भरे कंधे देकर उसे छलना ठीक नहीं, क्योंकि सत्त बोले गत्त है।
जीवन में मैंने कंधा देनेवाले कई विशेषज्ञ देखे हैं। वे अरथी भी बनाते हैं, कंधा भी देते हैं और दाहस्थल पर चिता भी सजाते हैं। लेकिन जब उनकी बारी आती है तो कई मामले में नगरपालिका से लोगों को बुलाना पड़ता है। हालांकि ऐसा एक दो मामले में ही हुआ है। इसलिए कंधा देेने वालों की मैं बहुत इज्जत करता हूं। भविष्य में ये मेरे काम आ सकते हैं।
‘राम नाम सत्य है’ का नारा शववाहन के पास आकर मौन हो गया।
शव शववाहन पर चढ़ा। अ-रथी अब रथी हो गया है। ठठरी को अरथी भी कहते हैं। चार लोगों के कंधों पर चलने पर भी अरथी इसे क्यों कहते हैं, यह प्रश्न भी कतार में खड़ा है। क्या इस शव या मुर्दे को ‘रथी’ विहीन ‘रथ’ या ‘गाड़ी’ कहने के प्रयास में ‘अरथी’ कहा गया है। यह प्रेरणा लोगों को गीता से मिली होगी। गीता में श्रीकृष्ण ने जिसे ‘माया की गाड़ी’ कहा है, क्या वह गाड़़ी यही शरीर है? आत्मा जिसका रथी है। इसलिए मुर्दा गाड़ी अ-रथी कहलाने लगी। प्रमाण के बिना जिन्हें भरोसा नहीं होता, वे अठारहवें अध्याय के इकसठवें श्लोक में इसे देख सकते हैं। महर्षि वेदव्यास कृष्ण का अर्जुन से संवाद कराते हुए लिखते हैं-
‘‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढ़ानि मायया।’’
अर्थात् हे अर्जुन! ईश्वर सभी भूतों यानी प्राणियों के हृदय में रहता है और माया के यंत्र में चढ़ाकर उसे घुमाता रहता है। जैसे स्कूटर वगैरह में पापा लोग बच्चों को घुमाते रहते है। स्कूटर से लेकर वायुयान तक यंत्र हैं, गाड़ी हैं। होने को तो बैलगाड़ी और हाथ ठेला भी यंत्र हैं। बायोइंजीनियरिंग के हिसाब से शरीर भी यंत्र अर्थात् गाड़ी है, जैसा वेदव्यास कह रहे हैं। इन्हीं बातों के कारण हम कहते हैं कि बायोइंजीनियरिंग भी हमारे शास्त्रों की देन है।
खैर शास्त्रों से लौटें और इस अद्भुत दृश्य को देखें कि जो व्यक्ति जीवन भर माया की गाड़ी में चला, मरने के बाद वह सेवाभावी संस्था की गाड़ी पर सवार होकर जा रहा है।
दाहभूमी या मरघट दूर है। गरमी का समय है। कंधों पर शव को ढोना मुश्किल है। यहां आकर यह सत्य उजागर होता है कि जीवित को तो ढोना मुश्किल है, मरे हुए को भी ढोने के लिए हम सुविधाएं जुटा लेते हैं। यही बुद्धिमत्ता है। सुविधा जुटा लेने में ही बुद्धिमानी है। जो व्यक्ति अपनी मूर्खता से मर जाता है, मृत्यु उसे भी बुद्धिमानी के वाहन पर चढ़ा लेती है।
लेकिन शववाहन में केवल शव ही नहीं चढ़ा, जो शव को कंधा देते हुए चले थे, वे भी सवार हुए और शेष शवयात्री अपने अपने वाहनों पर सवार होकर मरघट की तरफ चले। मैंने सोचा कि देखो, कितनी अजीब बात है, मरा हुआ तो आखिरी बार मरघट जाता है लेकिन जीवित व्यक्ति बार बार मरघट जाता है।
मेरे देखते देखते ही शवयात्रा वाहन-यात्रा में बदल गई। मैंने भी अपने वाहन के कान उमेठे और उसे एक जोरदार लात लगाई। वह गुर्राने लगा। अब बाईसन रूपी बाइक की पीठ पर चढ़कर मैं भी कतार में लग गया। जैसे घोड़े पर सवार होते ही जनक को तत्वज्ञान हुआ, वैसे ही मेरे कानों में कबीर बोल पड़े-
‘माली आवत देखकर कलियन करीं पुकार।
फूले फूले चुनि लिये, काल्हि हमारी बार।।’
अस्तु, मुर्दा सहित सभी सवार अपनी अपनी गाड़ियों में श्मशानभूमि चले। सभी वाहन बहुत ही अनुशासित ढंग से चल रहे थे। मेरी इस तरह की यह पहली यात्रा थी। हालांकि शव की अगुआई में चलने के अवसर अनेक मिले हैं किन्तु वे सब पैदल यात्राएं थीं। मुझे वाहनों को देखकर लगा था कि घर्राते हुए यूं निकल जाएंगे। पर जिस शालीन रफ़्तार से वाहन चल रहे थे उसकी कल्पना मुझे नहीं थी। यही वाहन अगर किसी शव के पीछे नहीं चलते तो कैसे खतरनाक़ ढंग से दौड़ते। एक दूसरे को पीछे छोड़ जाने की होड़ में कट मारकर आगे निकल भागते। मारकाट करते हुए आगे बढ़ने की हमारी रफ़्तार तब देखते भी नहीं बनती। किन्तु इस समय यूं जाने की बजाय ‘संगच्छत्ध्वम्’ की भावना से सभी धीरे धीरे आगे बढ़ रहे हैं। यही नहीं जो वाहन शवयात्रा में शामिल नहीं है, वे भी साइड से निकलते वक़्त बहुत धीरे से ग़ुज़र रहे हैं। हमारी संस्कृति की यही विशेषता है, हम शव के सम्मान में वाहनों से उतर जाते हैं और पैदल आगे बढ़कर मृत्यु को प्रणाम करते है।
मुझे लगता है, महानगरों या मायानगरों के संवेदनशील स्थानों में रफ़्तार कंट्रोल करने के लिए यातायात विभाग को शववाहन सहित शवयात्रा की व्यवस्था निरन्तर करनी चाहिए।
दिनांक 26.04.12
क्रमशः
अगले आकर्षण:
1. मृत्युंजयघाट,
2. बाल की खाल,
Comments
क्या कटाक्ष है. वैसे हम इसी स्थिति में पहुँच गए है.
धन्यवाद। आती रहें।
डॉ राम कुमार जी ..सार्थक लेख ..सटीक हालात को दिखाते हुए, थोडा मन को माया जाल से विश्रांति भी मिली कहीं कहीं और जोरदार कटाक्ष भी ........
भ्रमर ५
हा..हा...हा......
कुछ दिनों पहले जैसे ही मैं सुबह अपने राकी को लेकर घुमाने निकली देखा पडोस में लोग एकत्रित हैं सोचा फिर नाली के पानी को लेकर बवाल खड़ा हो गया होगा ...तभी डॉ मेधी ने बताया मिसेज सैकिया का रात निधन हो गया ...अरे कल ही तो हम सभी महिलाएं एकत्रित हो नाली के बंद पानी की समस्या लेकरपटवारी मेन्शन गए थे तब तो भली चंगी थी ....?
खैर अब उनकी अंतिम क्रिया में शामिल होना था ...और वहां हमारी स्तिथि भी कुछ ऐसी ही थी जब सब झुकते तो हम सीधे हो जाते जब हम झुकते तो लोग सीधे हो जाते .....:))
पर आपने शब्दों का विश्लेषण खूब किया ......
गीता में श्रीकृष्ण ने जिसे ‘माया की गाड़ी’ कहा है, क्या वह गाड़़ी यही शरीर है? आत्मा जिसका रथी है। इसलिए मुर्दा गाड़ी अ-रथी कहलाने लगी।
वाह ....!!
आपका ये आलेख तो शव यात्रा से भी लम्बा होते जा रहा है ....
चलिए आगे की यात्रा का intjaar है ......
क्या इसकी
सिसकती सुगंध को अमृता कहूं?
इमरोज़ का ख़त कल ही मिला ....
उनकी कुछ पंक्तियों का हिंदी अनुवाद आपके लिए .....
अब तुम कहीं मत जाना
न गुवाहाटी
न दिल्ली
न ताख हजारे
बस अपने आप में रहना
यह अपना राँझा ही
कह सकता है
यह अपना वारिस
ही लिख सकता है .....
इमरोज़ .............
अब मैं क्या समझूँ आप ही बताएं ...............?
इश्क का क्या कोई एक नाम होता है?
बहुत गहन आलेख .....रथि और अरथि का भेद कहता हुआ ...बहुत अछा लिखा है ...
आभार.