आपके इधर तो खैर आता ही होगा, हमारे भी आता है एक फेरीवाला.. प्लास्टिक के घरेलू आइटम लेकर. वादा करता हे कि अगली बार वह भी लेकर आउंगा जो इस बार नहीं लाया..तो फिर जरूर आता है..
लीजिए मैंने भी कहा था कि अगली बार यह लेकर आउंगा तो आया...
दर्द की चर्चा चल निकली।
चार लोग बैठते हैं तो कुछ न कुछ चल निकलता है। चलते पुरजों से काम की बातें आप चाहे न निकाल पाएं, यह निष्कर्ष जरूर निकाल लेते हैं कि किसी के पेट में क्या है।
मुझे लगता है कि यह कहावत ‘‘किसी के पेट में क्या है, कोई नहीं जानता’’, जरूर किसी दाई ने बनाई होगी। जचकी से संबंध बैठता है इसका। किसी दाई (मेटरनिटी मेड एक्सपर्ट) ने लक्षण देखकर बताया होगा कि लड़का होगा। हो गई होगी लड़की। भद्द हुई होगी तो झल्लाकर उसने कहा होगा-‘‘ अब किसी के पेट में क्या है, कोई थोड़े जानता है।’ लड़का होता तो वही शेखी बघारती और ईनाम लेती। कैसी अजीब बात है, जिस लड़की को लेकर दुनिया में इतनी मारकाट मची है, उसे ही लोग पैदा होने से रोकते है, भ्रूण में मार डालते हैं।
खैर, चलते पुरजे अपना काम जिस खूबसूरती से निकालते हैं उसे कोई पा नहीं सकता। ये सारे निष्कर्ष पहले से निकले रखे हैं। लेकिन जिस प्रकार पुराणों, कथा-कहानियों, सरकारी गोदामों में सड़ते अनाजों, वन विभाग की घुनती गलती लकडियों, रेलवे यार्डों में जंक खाकर धूल होते लोहे की तरह सारी ठोस बातें धरी रह जाती हैं और आदमी वही करता है जो तत्काल उसे मजे़दार लगती हैं, भले ही वह पर्दे पर चलती मायावी तस्वीरें ही क्यों न हो।
समय के रुपहले पर्दों पर बुद्धिजीवियों की बातें एक रोचक और तथाकथित गंभीर मायावी संसार की रचना करती रहती हैं। समाज के रूट लेवल पर सक्रिय संसार को इन बातों में हवा-हवाई दिखाई देती है। बुद्धिजीवी देश नहीं चलाते। देश चलानेवाले लोग चलते-पुरजे़ हैं। वे ही बुद्धिजीवियों को चलाते हैं। अपने हिसाब से।
इसी गुणसूत्र के चार बुद्धिजीवी वहां बैठे थे। अर्थशास्त्र, विधिशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र और साहित्य ही उन चारों की अपनी अपनी आजीविका थी। प्रसंग निकला कि वन विभाग के लिए वनरक्षकों की परीक्षा का समन्वयन इसी महाविद्यालय से होना है। हिन्दी साहित्य के अट्ठावन वर्षीय शिक्षक ने कहा कि इतने युवाओं में मुझ बुजुर्ग को क्यों शामिल किया गया?
‘‘आप कहां बूढ़े हैं? आपक कहां से बूढ़े हैं?’’ एक व्यक्ति मेरी सूरत को देखकर कहते हैं ‘‘आप 45 वर्ष के लग रहे हैं।’’
वे अर्थशास्त्र के अध्यापक हैं। अक्सर अनुमान गलत लगाते हैं। इस देश के प्रधानमंत्री भी अर्थशास्त्र के डाक्टर हैं। फिर भी देश की अर्थव्यस्था चरमरा रही है।
पर मेरे देश के अर्थशास्त्र से ज्यादा यह सवाल महत्वपूर्ण लग रहा है कि लोग बूढ़े कहां से होते है? किस जगह से बूढ़ा होना शुरू करते हैं और सिक जगह पर अंत करते हैं। बाल से या खाल से? भाल से या गाल से? चाल से या ढाल से? तन से या मन से? शरीरविज्ञान के पास इसका कोई जवाब हो सकता है। वही बताएगा कि बूढे़ होने के क्या गुणसूत्र हैं ?
पिछले दिनों मैंने ब्लड टेस्ट कराया। रिपोर्ट देखकर कहा गया कि मैं एकदम फिट हूं। लेकिन यह डायगनोसिस गलत है। मैं दमा से पीड़ित हूं। बीस सालों से कंधे के दर्द से परेशान हूं। नागपुर, रायपुर, भिलाई आदि एडवांस्ड जगहों में मैंने दर्द की जांच कराई। दर्द का फिजीकल एक्सिस्टेंस नहीं मिला। हर बार डाक्टर ने लिखा ‘नो फिजिकल एक्सिसटेंस’। अब क्या करूं? अरे भाई फिजिकली ही हो रहा हैं दर्द, मालिश करवा रहा हूं। दर्द उठता है तो आंखें वाष्पीभूत हो जाती हैं। तुम्हें उसका अस्तित्व दिखाई नहीं दे रहा है।
दर्द की एक्सरे रिपोर्ट नहीं बनती।मशीनें दर्द का चित्र खींचने में असमर्थ है। पैथालाजिकल लैब चिकित्सा विभाग का मजाक उड़ा रही हैं । दर्द ठठाकर हंस रहा है-‘‘ खोजो, खोजो। खोज लो तो मुझे भी बताना। मैं भी देखना चाहता हूं कि कैसा दिखता हूं मैं।’’
दर्द ठठाकर हंसता है तो मारे दर्द के मैं रो पड़ता हूं। मैं उसे ढूंढ कर मार डालना चाहता हूं। पेन किलर उतने कुशल हत्यारे नहीं हैं। उनका मारा हुआ दर्द चौबीस घंटे में उभर आता है। रक्त बीज की तरह उसकी एक एक बूंद हजार हजार दर्द को जन्म देती हैं।
कंधे में होते होते अब दर्द मेरी पीठ में होने लगा है। कमर भी कई बार ऊपर वाले माले यानी धड़ का बोझ नहीं संभाल पाती। दर्द से सन्ना जाती है। पर ये सारे दर्द कैसे दिखाऊं? कोई चित्र उनके नहीं मिले। कोई चित्रकार इन दर्दों का चित्र नहीं बनाता। किसी फोटोग्राफर ने उसरी फोटों नहीं खींची। प्रसिद्ध कलाकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने ऐसे तो सारी नग्न तस्वीरें बनाकर करोड़ों अरबों कमाए, लेकिन एक दर्द को वह नहीं साध सका। वे मजे़ का सौदा करते रहे और दर्द कराहता रहा। कला के नाम पर मजे़ के सौदे व्यापारी-जगत करता रहा, पर दर्द के वाणिज्य की चित्रात्मक झांकी वह नहीं खींच सका।
कैसे कहूं कि मुझे दर्द है। कैसे यकीन दिलाऊं कि यह दर्द हैं, देख लो। दर्द का विज्ञापन नहीं किया जा सकता। बस, चुपचाप सहा जा सकता है।
दर्द चिकित्सा विज्ञान का विषय नहीं है। दर्द का कोई विधिशास्त्र भी नहीं है। कोई दर्द लीगल है या इल्लीगल, कानूनविद् इस तथ्य को नहीं जानते। वनस्पतिशास्त्र कहता है कि शरीर प्राणीविज्ञान का विषय है। वनस्पतिशास्त्र पेड़ पौधों के बारे में बताता है। बताता है कि पेड़ पौधों को दर्द नहीं होता।
दर्द केवल साहित्य का विषय है। कवियों ने उसे देखा सुना है। उससे बातें की है। सच्चा साहित्य दर्द से निकलता है।
एक कवि ने लिखा है ‘‘विरही होगा पहला कवि, दर्द से निकला होगा गान।’’
अद्भुत साहित्य-संसार है। दर्द होता है तो कराह नहीं निकलती, गान निकलता है। क्या इन्ही उल्टी बातों के आधार पर साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है? दर्द को ज़रा दर्पण दिखाओ। मैंने सुना है भूत दर्पण मे नहीं दिखते। दर्पण में इच्छाधारी नाग-नागिन दिखते हैं। वर्तमान मंे ना दिखाई देने वाले ग़ायब कल्पनापात्र लाल कांच में दिख जाते है। एक्सरे में भी ना दिखनेवाला दर्द भूत नही हो सकता। वह भूत है भी नहीं। दर्द तो हमेशा वर्तमान होता है। दर्द को क्या दर्पण दिखाऊं? फिर दर्पण में तो वर्तमान ही उल्टा दिखता है। इसीलिए शायद दर्द को आईना दिखाओ तो वह रोने की बजाय गाने लगता है। तभी पहले कवि ने दर्द के सापेक्ष गान लिखा। कवि लोग भी पता नहीं किस दुनिया से आते हैं।
एक दूसरे कवि आर. रामकुमार हैं । उनका प्रसिद्ध गीत है-‘‘न चिल्लाऊं चीखूं , न दुखड़े सुनाऊं। बहुत दर्द जागे तो चुपके से गाऊं।’’
अजीब कवि है। सब दर्द में चीखते चिल्लाते हैं, दुनिया भर के दुखड़े सुनाते फिरते हैं, यह कवि गीत गा रहा है। गा भी रहा है तो चुपके से। इसका मतलब है कि दर्द का बाईप्रडॅक्ट, गीत है। वाह! क्या दर्द है।
31.03.12/2.5.12
Comments
अलबेला भाई क्यां था एटला दिवस?
क्षमा जी! बार बार नमस्कार।
कमाल है भाई दर्द!
तुम्हारे रिश्ते कितने तगड़े हैं
सारे अपने
पुराने से पुराने
लौट आए
आने और इतनी आत्मीयता से टिप्पणी करने का धन्यवाद!