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खाने की टेबल पर मां और बीवी का मसाला

एक वो भी मसालेदार विज्ञापन था कि आफिस से लौटा हुआ आदमी घर में घुसते ही हवा सूंघता था और बीवी से पूछता था,‘‘ मां आई है क्या ?’’
बीवी मुस्कुराकर मसालों को धन्यवाद देती थी। इसका मतलब कि अब मां खाने में नहीं महकेगी। उसका स्थान अब मसालों ने ले लिया है। इस तरह मसालों की नई खपत ने कम से कम किचन से मां के महत्व को खत्म कर दिया। मां का स्थान अब अमुक कम्पनी के मसाले ने ले लिया। पर उससे पत्नी का भी महत्व कम हो गया । पत्नी के स्थान पर कामवाली बाई या कोई भी बाई आराम से खाने को स्वादिष्ट बना सकती है। आप अगर बाई की कोई खास जरूरत किचन में नहीं समझते हों तो आप खुद भी उस खास कम्पनी के खास मसाले का उपयोग कर एक साथ मां ,बीवी और बाई की कमी को पूरा कर सकते हैं। (सीरियल वाले या फिल्म वाले इस समय मुझे थैंक्यू कह सकते हैं। मैंने उन्हें एक नया टाइटिल सुझाया है ‘मां ,बीवी और बाई। विज्ञापनवाले भी चाहें तो इसका लाभ उठा सकते हैं।)
अभी-अभी एक नया विज्ञापन आया है। टेबिल सजी हुई है। मां भी है ,बीवी भी और खानेवाला वह कमाउ पूत भी जिसे खुश करने लिए खाना बना है। वही खाना बाकी लोगों के खाने के लिए बना है। खाने के टेबिल पर भी एक ही खाना दो अवतारों में दिखाई देता है। खैर ,आगे के दृश्य में क्लाइमैक्स पैदा करते हुए मसालेदार खाने में कमाउ पूत की प्रतिक्रिया का तड़का लगाया जाता है। कमाउ पूत झिझकते हुए अपनी पत्नी से कहता है,‘‘ आज तुमने तो मां से भी अच्छा खाना बनाया है।’’ यहां बुद्धिमान कैमरा स्वयमेव पत्नी पर चला जाता है- वह एक लट संवारती है और कभी सास और कभी पति की तरफ देखती है,मतलब सास से ‘सारी ,यू आर फिनिस्ड नाव’और पति से ’ ‘थैंक यू ! तुम खुश हुए न ?’
अब कैमरा मां पर पलटता है। मां के चेहरे पर ऐसे भाव हैं जैसे कभी उमा के या अभी कुछ दिनों पहले वसुन्धरा के चेहरे पर थे। सत्ता छिन जाने के भाव। राजनीति वाणिज्य का नकाब ओढकर खाने की टेबल पर घुस आई है। मुझे लगता है अब यह गाना बजेगा, ‘‘अब चाहे मां रूठे या बाबा , मैंने अपनी चाल तो चलदी।’’ मगर गाने के स्थान पर विज्ञापन में इस स्थान पर एक आकाशवाणी गूंजती है ,‘‘ अब जो सच है , वो सच है।’’
यानी मसाला सच है। नमक-मिर्च का युग बीत चुका है । सभी नमक-मिर्च लगाने लगे तो मसालों ने अपने को लांच कर दिया। वे पूरी मुस्तैदी से स्थापित हो चुके हैं। इसी का नतीजा है कि अमुक कम्पनी के मसाले सदी के शताब्दी पुरुष या महानायक हो गये। कमाल मसाले का जितना है उससे ज्यादा विज्ञापन का है। यह एक ऐसा टीमवर्क है जिसमें पता लगाना मुश्किल है कि विज्ञापन में मसाला है या मसाले में विज्ञापन है। यही होना भी चाहिए। यहां पर मैं राधा और कृष्ण का उदाहरण विनम्रता पूर्वक देने की अनुमति चाहता हूं। दोनों ने एक दूसरे को इतना मैंनेज किया कि राधा कृष्ण दिखने लगी और कृष्ण राधा दिखाई देने लगे। विज्ञापन में मसाले का प्रयोग उसी अनन्याश्रित प्रगाढ़ता का परिचायक है।
अस्तु , कवि पहली पंक्ति में आंख फाड़कर पूछता है, ‘सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है!’
दूसरे पद में उनका कौतुहल मुंह के अंदर उंगली डालकर बुदबुदाता है ,‘‘ नारी ही कि सारी है कि सारी ही कि नारी है ?’’
अंत में टीवी रूपी कवि पूछता है कि हे मूर्ख उपभोक्ता ! क्या तूने कभी सोचा है कि विज्ञापन मसाले के लिए बने हैं या मसाला विज्ञापन के लिए बना है ? नहीं सोचा है तो खाने के पहले सोच । फिर तेरी आ ही गई है तो खा मर.
-अरे कांच के पर्दे ,हास्यास्प्रदी ,10.11.09

Comments

आपके समसामयिक व्यंग्यों का जवाब नहीं...
खूब सूझता है आपको...
kumar zahid said…
ghazab hai janab,
itana bareek tanz aamtour par dekhane nahi milta....aapka colomn bhi mashaallah ..... 'are kanch ke parde!'
vah vallah
डाक्टर रामकुमार जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद मेरी एक मार्मिक कविता पर उससे भी मार्मिक प्रतिक्रिया लिख कर कविता के साथ ब्लॉग पर लगे चित्र की विवेचना कर आपने सही मायने में मेरी कविता को सार्थक कर दिया है बहुत भावुक कर गयी आपकी प्रतिक्रिया
सादर आभार
आजकल आपका ब्लॉग पढ़ रही हूँ. बहुत अच्छा लग रहा है. तथ्य भी रोचक हैं और अभिव्यक्ति तो बेमिसाल. बधाई स्वीकारें इस सुंदर प्रस्तुती पर
वर्ड वरिफिअकेशन हटा दें बहुत समय लग जाता है
Dr.R.Ramkumar said…
मित्रों ! आपकी बहुमूल्य टिप्पणियां मेरे लिए अमूल्य हैं। कृप्या इस तादात्म्य को बनाए रखें।

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