Skip to main content

Posts

Showing posts from June, 2024

सुप्रभात की सामाजिक-साहित्यिक परम्परा

 सुप्रभात की सामाजिक-साहित्यिक परम्परा   सामाजिकता की चाह ने मनुष्य-समाज बनाया और उसके निरंतर विकास के प्रयास मनुष्य करता रहा। मनुष्य ही क्या, पृथ्वी पर जीवित और गतिशील प्रत्येक पार्थिव जीव, जंतु और द्रव्य इसी सामाजिकता की जन्मजात भावना में बंधकर परस्पर बंधने और बांधने के प्रयास में सक्रिय हैं। मनुष्य संगठन बनाकर शक्तिशाली और सुरक्षित रहता है, तो पशु पक्षियों को देखकर, समूह और समाज के सशक्त-सौंदर्य का बोध होता है। सांझ होते ही आकाश में पक्षियों की चित्रात्मक कतारों या समूहों को देखकर मन प्रफुल्लित हो उठता है। ठिकानों में लौटते पशु-समूह सामूहिकता के मूल्यों को बहुमूल्य बना देते हैं। घरेलू मवेशियों को छोड़ भी दें तो समूह-सौंदर्य का दर्शन जंगलों में जाकर किया जा सकता है। चीतलों, चिंकारों, सांभरों, बारहसिंघों और नीलगायों के झुंड के झुंड आपसी-समूह में चरते, आपस में झूमते-मस्ताते दिख जाते हैं। भारतीय गौरों (वनभैंस, Bison) के पारिवारिक वनभैंसियों को, बछड़ों के साथ देखकर, उनका श्यामल ‘समूह-सौंदर्य ’ मन को मोह लेता है। सामाजिकता का लोभी मन तो वन-शूकरों (जंगली सुअरों) की सामूहिकता ...