वो : एक ग़ज़ल बेकाबू ... टेढ़ा मेढ़ा ...बहुत तेज़ जा रहा बुझने के पहले जैसे दिया भकभका रहा नारी... दलित के बाद वो शबरी के नाम पर जूठे नहीं मिले तो झूठे बेर खा रहा अगली कठिन चढ़ाई में अगले की टांग खींच सीना फुला के बांह की मछली दिखा रहा इससे भी ज्यादा और गिरावट सियासतन होनी है ... दौर का हमें मंज़र बता रहा कितना अज़ीब शौक़ है ... पशुओं से प्रेम का कुत्ते ख़रीदकर उन्हें हाथी बना रहा @कुमार, १२.०७.२२, मंगलवार