दो अपेक्षित कविताएं कविता : 1 -------- उठो देवता! उठो देवता! विषधर सहसफनों के नीचे रहकर सुखी न समझो, छोड़ो यह विश्राम कोलाहल है बहुत समुद्री इन लहरों में लहरें, यही इकाई हैं सागर के विस्तृत फैलावों की देख रही हैं रोज़ अंदर अंदर क्या चलता है मधुआरे का जाल बड़ा होता जाता है बड़ी मछलियां जैसे उसकी हैं बिचौलिया जो मछली जालों से बचकर दूर निकलती बड़ी मछलियां जो दलाल हैं मछुआरे की उस पर हमला कर देती हैं उठो देवता! सागर का कोलाहल भुगतो अपना भी अब पक्ष बताओ बोलो किसके साथ खड़े हो दुष्टों के, मध्यस्थों के या कुटनीतियाँ झेल रहे साधारण जन के? उठो देवता! कहा था तुमने सज्जन जब जब पीर सहेगा उल्टे सीधे मनमाने नियमों के आगे सर न झुकेगा समझदार भुक्तभोगी का उसका आकर त्रास हरोगे उठो देवता! कहा था तुमने खलजन का तुम शमन करोगे नीतिवान को मुक्त करोगे सारे दुख से वचन निभाओ फिर पवित्र तुलसी को ब्याहो उठो देवता! कोलाहल को शांति बनाओ! (१५.११.२०२१, ११.११ प्रातः) ००० 0 कविता : 2 कुछ कर दिखाओ ! * साहस का जुआ खेलो, जान की बाज़ी लगाओ, देखो मत किनारे पर खड़े रहकर तेज़ धार में ...