*** स्वत्व की मावस-निशा में, दीप लेकर आ गया मैं, ओ रतौंधी के अंधेरे! क्या तुम्हारे द्वार धर दूं? 0 कमल-कीचड़ का कला-चित, जम चुका अवचेतनों में। मूल्य-विमुखित लाभ-लोलुप, धन जुड़ा अब वेतनों में। 'जैसे तैसे कट रही'~पर, (~पर = ऊपर) 'जैसे भी हो' का प्रशासन, तुम अगर मन से कहो तो, इस पतन से तुम्हें वर दूं! ओ रतौंधी के अंधेरे! 0 फूल से फौलाद जीता, धूल पर कंक्रीट हावी। अब बहुत आसान जाना चैन्नई से जम्मु-तावी। हिन्द-सागर से हिमालय, एक ही वातावरण है, आ करूँ श्रृंगार तेरा, एक-रस, इक रंग कर दूं। ओ रतौंधी के अंधेरे! 0 झूठ का इतिहास रचते जा रहे हैं शब्द लंपट। सत्य से सीधे निपटना हो अगर तो, बड़ी झंझट। पी सुरा स्वच्छंदता की झूमती पागल हवाएं, अब किसे मैं भाव सौंपू, सृजन-स्वर, पावन-प्रखर दूं! ओ रतौंधी के अंधेरे! 0 आ चलें वर्चस्व की इस बाउली से मुक्ति पाएं। सर्वजन हित गीत रचकर, सब के सब समवेत गाएं। राजनीतिक कूट-कलुषित वंचना से रिक्त होकर, तुम मुझे अनुराग दे दो, मैं तुम्हें जीवन से भर दूं! ओ रतौंधी के अंधेरे! ००० @कुमार, ४ सितम्बर,...