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Showing posts from September, 2019

ओ रतौंधी के अंधेरे

*** स्वत्व की मावस-निशा में, दीप लेकर आ गया मैं, ओ रतौंधी के अंधेरे! क्या तुम्हारे द्वार धर दूं? 0 कमल-कीचड़ का कला-चित, जम चुका अवचेतनों में। मूल्य-विमुखित लाभ-लोलुप, धन जुड़ा अब वेतनों में। 'जैसे तैसे कट रही'~पर, (~पर = ऊपर) 'जैसे भी हो' का प्रशासन, तुम अगर मन से कहो तो, इस पतन से तुम्हें वर दूं! ओ रतौंधी के अंधेरे! 0 फूल से फौलाद जीता, धूल पर कंक्रीट हावी। अब बहुत आसान जाना चैन्नई से जम्मु-तावी। हिन्द-सागर से हिमालय, एक ही वातावरण है, आ करूँ श्रृंगार तेरा, एक-रस, इक रंग कर दूं। ओ रतौंधी के अंधेरे! 0 झूठ का इतिहास रचते जा रहे हैं शब्द लंपट। सत्य से सीधे निपटना हो अगर तो, बड़ी झंझट। पी सुरा स्वच्छंदता की झूमती पागल हवाएं, अब किसे मैं भाव सौंपू, सृजन-स्वर, पावन-प्रखर दूं! ओ रतौंधी के अंधेरे! 0 आ चलें वर्चस्व की इस बाउली से मुक्ति पाएं। सर्वजन हित गीत रचकर,  सब के सब समवेत गाएं। राजनीतिक कूट-कलुषित वंचना से रिक्त होकर, तुम मुझे अनुराग दे दो, मैं तुम्हें जीवन से भर दूं! ओ रतौंधी के अंधेरे! ००० @कुमार, ४ सितम्बर,...

अस्तित्व की लड़ाई

मैं तुम्हारे द्वार आया हूँ तुम्हें देने बधाई, तुम कृपा की टोकरी नौकर के हाथों मत भिजाना! मैं तुम्हारे दुर्दिनों के कठिन श्रम का साक्षी हूं, गंध हूं माथे से टपके हर पसीने की तुम्हारी। मैं लगन की, साधना की अनवरत गतिमान लागत, लाभ में तुमको मिलें शुभकामना सारी हमारी। तुम सफलता के चरम पर पांव अपना धर चुके हो, आत्म-मोहन मेनका के रूप में मन मत रिझाना।              तुम कृपा की टोकरी नौकर के हाथों मत भिजाना! स्मरण है? भूमि छप्पर तानने को, मिली कैसे? एक तुलसी, एक गेंदा, एक  मिर्ची रोपने को। एक मुट्ठी धूप खाकर, पेट भर आंसू पिलाकर, सूर्य प्रतिदिन तुमको ले जाता मिलों को सौंपने को। तेज धारों की दराती से दिनों को भूलना मत, स्वप्न से रूठी हुई रातों को अब फिर मत खिजाना।              तुम कृपा की टोकरी नौकर के हाथों मत भिजाना! सफलता होती नहीं अस्तित्व की अंतिम लड़ाई, फिर नया संघर्ष रचता है नया रण-व्यूह अपना। फिर नए त्रय-शूल की तलवार लेकर प्रण-तुरग पर, प्राण के अंधे-समर में सबको होता टूट पड़ना। अहिर्निश, प्रतिक...