मुख्यपृष्ठों! सोचना मत हासिये हैं। हम कसीदे बुननेवाले क्रोशिये हैं। पाट देते हैं दिलों की दूरियां हम, खुशसुखन हम बांटते हैं, डाकिये हैं। समन्दर हैं आंख की सीपी में सातों, इसलिये ये अश्क सारे मोतिये है। भ्रम न फैलाते न कोई जाल रचते, हम खुली वादी में जीभरकर जिये हैं। जन्में हैं हम पत्थरों में, शिलाजित हैं, गुलमुहर से रिश्ते तो बस शौकिये हैं। आंधियों इतराओ मत झौंकों पै अपने, वक़्त जिसकी लौ है खुद, हम वो दिये हैं। नाव से निस्बत रखें न हम नदी से, साहिलों तक तैरकर आया किये हैं। बस्तियों में रात हो जाये तो ठहरें, मन है बैरागी तो चौले जोगिये हैं। कब किसी अनुबंध में बंधते हैं ‘ज़ाहिद’ जिस तरफ़ भी दिल किया हम चल दिये हैं। वीक्षकीय, 30.12.14 सुगढ़ और सुधि सुमति-समृद्ध समर्थ नेतृत्व के अभाव में वाणिज्यिक विज्ञापनी-प्रबंधन दुरभिसंधि से भरकर एक लहर और हवा की तरह सरसरा रहा है। इससे बहुत सी आत्ममुग्ध यथास्थितिवादी स्थापक शक्तियां अपनी बांबियां रचने लगी हैं। इन दीमकों की सुगमुगाहट से अकुलाकर कुछ शेर खुदबखुद उतर आये। इनका तहेदिल से इस्तकबाल है। तसलीम। 0...