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Showing posts from May, 2014

विष-रस और मीरां की हंसी

रस काव्य की आत्मा है। छंद उसका शरीर है और अलंकार उसके आभूषण हैं। काव्यांग विश्लेषण और व्याख्यान में इसी दृष्टांत को वर्षों से परोसा जाता रहा है। व्यंजनों के रसास्वादन के लिए। उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए। रस आत्मा की भांति दिखाई न देने वाला मनोभाव है। शरीर की भांति छंद के नाटे लम्बे, मोटे दुबले होने का प्रत्यक्ष हो जाता है। कुरूप और सुरूप होने का बोध भी होता है। नई लहर ने कविता आंदोलन के साथ यद्यपि कायाकल्प कर लिया है और बिल्कुल छरहरी होकर लुभाने की मुद्रा में स्थान स्थान पर खड़ी मिल जाती है। अलंकार भी रूप के अनुकूल उसने बदल लिये हैं। बिल्कुल त्यागे नहीं हैं। गद्य तक में भी अलंकरण के आधुनिक स्पर्श दिखाई दे जाते हैं। छंद की तरह अलंकार भी दिखाई देनेवाले स्थूल रूप हैं। दिखाई देने वाले के स्थान पर दिखाए जाने लायक शब्द रख देने से भी उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। हमारी प्रगति में बंधन मुक्त होने की लालसा दिखाई देती है। यह और बात है कि बंध हम फिर भी जाते हैं। यहां रूसो का कथन उदाहरण बन सकता है कि हम पैदा तो स्वतंत्र हुए हैं लेकिन सामाजिक होने से सर्वत्र जंजीरों में बंधे...

तेरा दिल या मेरा दिल

 पाठकीय किंवा पठनीय                 कुछ मामलों में आचार संहिताएं काम नहीं करती। जैसे मामला ए प्रेम या फिर वारदाते भोगविलास, या फिर माले मुफ्त और दिले बेरहम। सारा कुसूर दिल का है। कवि शैलेन्द्र ने स्पष्टतः कहा है- दिल जो भी कहेगा मानेंगे, दुनिया में हमारा दिल ही तो है। समकालीन युग में प्रेम और श्रृंगार के स्टार-कवि के रूप में आत्म-ख्यात कुमार विश्वास ने भी उनके स्वर में स्वर मिलाकर गया है- कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है। मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है। मैं तुझसे दूर हूं कैसा, तू मुझसे दूर है कैसी- ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है। ये पेशे से प्रोफेसर हैं। इनकी इन पंक्तियों ने इन्हें रातों रात स्टार कवि बना दिया। मंचीय कवियों के इतिहास में यह एक क्रांतिकारी के रूप में उभरे जिसने मानदेय के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। नीरज तक नीरस हो गए। इसके पीछे कारण मात्र दिल का है। लाखों युवाओं के दिल की बात इन्होंने कह दी। अब हंगामा तो होना ही था जैसा बिहार के प्रोफेसर के समय हुआ। उन्होंने ग़ालिब के प्रसिद्ध ‘प्रमेय’ ...