मेरे एक मित्र के ब्लाग में एक पत्रकार मित्र ने बड़े दुख और क्षोभ के साथ लिखा है कि देखो प्रोफेसर मटुकनाथ भी पत्रकारिता के अखाड़े में उतर रहे हैं। हिन्दी के प्राफेसरों से उन्हंे खास शिकायत है। ये प्रोफेसर वो साम्राज्यवादी सामन्त लोग हैं जो हर मामले में टांग अड़ाते हैं, कही भी उतर जाते है। देखा कि कोई बाजार है तो ये अपनी दूकान खोलकर बैठ जाते हैं। इनसे स्वरोजगार से जुड़े हुए लोग बेरोजगार होते हैं। प्रोफेसर डॉ. मनमोहन प्रधानमंत्री बन गए। प्रो. दंडवते, प्रो. जोशी वगैरह कितने ही लोग हैं जो राजनीति के रास्ते से संसदमें घुस गए। मैं झल्लाए हुए मित्र के पक्ष में हूं। एक उच्च शिक्षा मंत्री हुई महिला प्रोफेसर की हालत को देखकर मैं चिंतित हूं। मैंे अपने विद्यार्थीकाल से ही प्रोफेसरों की आलोचना और उनकी मूर्खताओं के किस्से सुनते आया हूं। एक बीए पास राजनैतिक कार्यकर्ता और एजेन्ट और लेखक को मैंने ज्ञान का ठेका करते देखा है। वे प्रोफेसरों के शंत रवैये से नाखुश थे। जो किताबें वे चाहते थे उन्हें न पढ़नेवाले प्रोफेसर को वे वज्र मूर्ख कहकर नकार देते थे। सैकड़ों लोगों की तरह वे भी यह मानते थे कि जो कहीं कुछ नहीं क...