नवगीत : हवा .... चल रही है! इधर चल रही है, उधर चल रही है। हवा को तो पढ़िए किधर चल रही है। इसे चुभ रही है, उसे डस रही है। कहीं फाड़ मुंह बे-हया हंस रही है। कहीं है धमाका, कहीं झुनझुना है। करेला इसे है, उसे अमपना है। बढ़ाती कहीं स्वाद, लेकिन कहीं पर- निवालों में भरकर ज़हर चल रही है। सवालों के कितने पड़ावों से बचकर। बहुत झूठ बोली, कहीं पर उतरकर। बहानों से देकर कभी सच को फांसी। ठहाके लगाती है, पर है रुहांसी। चली मालगाड़ी सजाकर बजारन, हवा उसकी बन हमसफ़र चल रही है। ये तोते गगन में जो छाए हुए हैं। ये जनता के हाथों उड़ाए गए हैं। ये टेंटें, ये तोतारटन्ती, ये भाषण। ये दिल्ली के सबसे बड़े हैं प्रदूषण। ...
एक नवगीत युवा नींद, क्वांरे सपनों को, बटमारों ने चुन-चुन मारा। अब केवल रतजगा हमारा। मेरे सुख-दुख नहीं बांटना, मेरी उन्नति नहीं चाहना, कष्ट पड़े तो दूर भागना, दुर्भिक्षों में नहीं झांकना। कूटनीति होगी उनकी यह, हर आयोजन है हत्यारा। चुन-चुनकर, कर रहे बेदख़ल, लगा रहे अपना सारा बल, रच षड्यंत्र, प्रपंच और छल, पग-पग मचा हुआ है दंगल। इधर अमावस पसर रही है, चमक रहा है उधर सितारा। तोड़ रहे हैं, फोड़ रहे हैं, वे धारा को मोड़ रहे हैं, तट भी गरिमा छोड़ रहे हैं, भंवरों से गंठ जोड़ रहे हैं। विप्लव, प्रलय, बवंडर, आंधी, हुआ इकट्ठा कुनबा सारा। @ रा. रामकुमार, १३.११-०९.१२.२०२५, अपरा...