महाकुंभ, मोनालिसा और मीडिया एक व्यंग्य गीत : भूरी आँखें ० भूरी आँखें नहीं तो, कुंभ में रखा है क्या? कुम्भ की जान हैं ये, धर्म का प्राण हैं ये, शास्त्र का सार हैं ये, पढ़ ज़रा लिखा है क्या। ये गज़ल, गीत का उनवान हैं, रस, छन्द हैं ये। मायावादी इन्हें कहते हैं कि छल-छन्द हैं ये। और ख़य्याम, गुप्त, पंत या बच्चन के लिये, मद्य हैं, फूल हैं, मधुरस भरे मकरंद हैं ये। सोमरस, रामरस पीकर भी जिन्हें होश रहे, उनसे पूछो कि 'नयन-रस' कभी चखा है क्या? इनके दर्शन में नवों दर्शनों की गहराई। त्याग, संयम नहीं संन्यास, समझ ये आई। पाप और पुण्य हैं बेकार की बातें, सच्ची, जिसने इन आँखों में डुबकी ली तो मुक्ती पाई। आज संगम में नहाने का अर्थ ज्ञात हुआ, हम यहां देखने क्या आये थे, दिखा है क्या? आदमी चाहता कुछ है, उसे मिल जाता कुछ। दांव में क्या-क्या लगाता कि हाथ आता कुछ। मन में पलते हुए अरमान धरे रह जाते, सोचता कुछ है, मगर वक़्त है, दिखाता कुछ। वो जो चाहेगा वही देगा, लाख सर पटको, शिव के उपहार हैं ये नेत्र, कुछ बचा है क्या? @कुमार, २१....
'राग दरबारी' : विद्रूपताओं और विडंबनाओं की जुगलबंदी 130 से अधिक पुस्तकों के लेखक, उपन्यासकार व व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल को लोग 'राग दरबारी' के लेखक के रूप में जानते हैं। उनको पढ़नेवालों ने लिखा है -"श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व द्वंदात्मक था। वे सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजकता का बहुविध मिश्रण थे। इसी क्रम में श्रीलाल शुक्ल प्रशासनिक अधिकारी की शुष्कता और रूक्षता के बावजूद शास्त्रीय संगीत और सुगम संगीत दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। यही नहीं, श्रीलाल शुक्ल जी ने गरीबी झेली, संघर्ष किया, मगर उसके विलाप से लेखन को नहीं भरा। इसका कारण यह रहा कि समाज संरचना की दृष्टि से चारों ओर से उन्हें जन्म से ही ऐसे मजबूत कवच का आवरण मिला जिसमें निर्धनता के बावजूद सम्मान, संघर्ष के बावजूद सहयोग और प्रोत्साहन तथा त्रुटियों के बावजूद सहानुभूति ने घेरे रखा। उन्हें बाधा हुई तो स्वास्थ्यगत कारणों से, क्योंकि 'देह धरे को दंड' तो राजा भी भोगता है, रंक भी। कुलीन भी भोगता है और वंचित भी। इसीलिए शैक्षणिक एवं स्वास्थ्यगत बाधाओं...