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पांडुलिपि चर्चा/समीक्षा

 विहंगम्य (पांडुलिपि चर्चा/समीक्षा ) ' तृण पुष्पों का संचय': डॉ. रवींद्र सोनवाने डॉ. रवींद्र सोनवाने मेरे महावियालीन साथी रहे हैं। गणित के प्राध्यापक होने के साथ साथ वे साहित्य, इतिहास, समाजविज्ञान के भी गम्भीर अध्येता हैं। सामाजिक सरोकार के क्षेत्र में भी उनका पर्याप्त योगदान है। लगातार उनसे विचार विमर्श होते रहता है। कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने बताया कि उनका तीसरा स्वतंत्र काव्य संकलन प्रकाशनाधीन है। वे चाहते हैं कि कोई टिप्पणी, भूमिका या समीक्षा उस पर लिख दूँ, ताकि रचना का एक दृष्टि से मूल्यांकन हो जाये।  मैं द्विविधा में पड़ गया।  घनिष्ठ रचनाकार के लेखन पर लिखित रूप से कुछ व्यक्त करने की अपनी सुविधाएं भी हैं और दुविधाएं भी। सुविधा यह कि रचना कर्म की सूक्ष्मतर जानकारी आपको उपलब्ध रहती है और दुरूहता या अस्पष्टता की स्थिति में चर्चा कर हल निकाला जा सकता है।  दुविधा मतभेद की स्थिति में होती है। चिंतन, विचारधारा, परिस्थियों के प्रति अपने अपने दृष्टिकोण, मान्यताएं, आग्रह दुराग्रह आदि स्वाभाविक मानवीय द्वंद्व हैं। लेखन में इससे ऊपर और हटकर भी मतभेद स्वाभाविक है। भाषा, बिम्...
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शानी का पूरा नाम

 शानी का पूरा नाम ...  'नाम में क्या रखा है।' यह बड़ा लोकप्रिय कथन है और अंग्रेजी लैटिन के जानकार बताते हैं कि विलियम शेक्सपीअर के किसी नाटक में कोई पात्र यह कथन करता है। लेकिन सच्चाई यही है कि अधिकांश लोग धन, जन, काम और नाम के लिये ही जीते हैं। उसे ही पुरुषार्थ मानते हैं।  पर देखा यह जाता है व्यक्ति के काम के पीछे उसका नाम गौण होकर, काम की पीठ पर सवार होकर चलता रहता है। पैरासाइट की तरह , पिस्सू या अमरबेल की तरह। आज भी कालिदास का मूल नाम किसी को नहीं मालूम। तुलसीदास  का नाम रामबोला भी अनुमान या कथा ही है। राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, धूमिल आदि के नाम जानने के लिए हड़प्पा की वापी खोदनी पड़ती है।  मैं भी कुछ क्षण के लिए इस चक्कर में पड़ गया। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जिनका भरोसा ज्ञान के मामले में भी कट्टर 'मैं' को अंगद की तरह एक स्थान पर जमाये रखते हैं। आस्था के मामले में एक ही बात को आंख मूंदकर पकड़े रखना भक्ति की सार्थकता हो सकती है। तर्क के हाथपांव बांधकर पत्थर के साथ कसकर समुद्र में फेंक देना सच्चा अनुगमन हो सकता है,  मगर ज्ञान के रास्ते में निरंतर तार्कि...

गुलशेर खां शानी : शालवनों का द्वीप

  गुलशेर खां शानी: शालवनों का द्वीप गुलशेर खां शानी             ज़िद आख़िर ज़िद होती है। कुछ मिले न मिले, बात लग जाये तो फिर पहाड़ खोद कर रास्ते निकालना मुश्किल नहीं होता। अब चाहे फरहाद हो या दशरथ मांझी, या मुझे भी इस फेहरिस्त में शामिल होने में कोई शर्म या झिझक नहीं।            बड़ी निराशा, व्यथा और पीड़ा की बात है कि बहुत ही ज़रूरी और महत्व की मूल्यवान पुस्तकें अब न दुकानों में मिलती न ऑन लाइन विक्रेताओं के पास। पीडीएफ तक नहीं। कहाँ गयी किताबें? कैसी साजिशों और किसकी साजिशों का शिकार हो गईं ये?              पिछले दशकों में, शायद नब्बे के दशक से बस्तर, नक्सल, सलवा जुडूम, एस पी ओ, आदि बहुत चर्चित हुए हैं। जंगल सत्याग्रह, जल, जंगल और ज़मीन, आदिवासी विमर्श, और बस्तर का असंतोष बड़ी चरचा में हैं। जंगल काटकर उद्योग स्थापित करना या इमारती लकड़ियां स्मगल करना एक परम्परा की तरह अंग्रेजों के समय से चला आ रहा। वनवासियों का शोषण बेगारी, विस्थापन सब आम बात की तरह हर सरकार का अघोषित एजेंडा रहा है। वन कर्मियो...

एक अनमोल पार्सल

एक_मूल्यवान_पार्सल अपने मित्र हिमांशु याज्ञिक ने राजनांदगाँव की चर्चित कवियों और गद्यकारों की वे कृतियां भेजी जो लगभग लुप्तप्राय है। ये हैं ख्यातिलब्ध एवं अनेक सम्मानों से सम्मानित, 'सवेरा संकेत ' के नींव-नियामक( शरद कोठारी के समग्र साथी) # रमेश_याज्ञिक (बाबूजी, हिमांशु के पिताजी), प्रखर और प्रचंड कवि # नन्दूलाल_चोटिया ( शरद कोठारी, मुक्तिबोध और रमेश याज्ञिक के मंडल के मुखर सदस्य), प्रमुख प्रगतिशील कवि # मलय ( शिवकुमार शर्मा 'मलय', मुक्तिबोध के स्थानापन्न, हरिशंकर परसाई के अनुज, प्रगतिलेखक संघ राजनांदगाँव  के संस्थापक महासचिव, मेरे गुरु और सचेतक), प्रगतिशील लेखक संघ राजनांदगाँव के संस्थापक सचिव # प्रो_पुन्नी_सिंह_यादव (प्रमुख प्रगतिशील कथाकार और उपन्यासकार,), # प्रो_शरद_गुप्ता ( हिमांशु और मेरे दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक, मुक्तिबोध के विपात्र के एक पात्र, मेरे हिंदी विभागाध्यक्ष गुरु, प्रख्यात लेखक # डॉ_गणेश_खरे , के सहयोगी और शोधार्थी छात्र)। यथासंभव यथासमय  इन पर ' राजनांदगांव की साहित्यिक विरासत' के अंतर्गत चर्चा करेंगे। 

शहरी और जंगली मदनमस्त

एक चरण और, प्रकृति की ओर.... मदनमस्त की भोर                                                      एक एक कवि की विवशता और लाचारी देखिए, लिखता है- लिपटकर उसके आंचल में न आंचल को समझ पाया। पड़े रहकर भी पांवों में न पायल को समझ पाया। वो दिल थी और धड़कन थी मेरी रग-रग में बहती थी, सदी थी मां  मैं' ही उसके न इक पल को समझ पाया।                                  (10.08.25, रविवार, भाद्र प्रतिपदा) यही हम सबका क़िस्सा हैं। हम जिसके जितने निकट होते हैं उसे उतना ही नहीं समझ पाते। मां की आंखें, मां की थपकी, मां का लाड़, प्यार, दुलार, उसका माथा सहलाना, पीठ थपथपाना, उससे लिपट जाना, कितनी नज़दीकी है मां से, पर हम उसके हाथ की रेखाएं भी कभी नहीं देख पाते। उसकी आंखों में ही कितना झांक पाते है? हमने उसकी उंगलियों की गठाने और उसके पांव के छाले कहां देखें है। उसकी हंसी में इतना जादू होता है...

रक्षाबंधन का पवित्र पर्व 'राखी'

  रक्षाबंधन का पवित्र पर्व 'राखी' '       पुजारी गण प्रत्येक पुण्य अवसर पर कलाइयों में कलावा बांधते समय जिस मंत्र का पाठ करते हैं, वह प्रसिद्ध  श्लोक यह है-                         येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:               तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि, रक्षे माचल माचल:। ।            अर्थात जिसने दानव राज राजा बलि को बांध लिया, उसे मैं तुम्हें बांधकर प्रतिबद्ध करती हूं कि अचल रूप से मेरी  रक्षा करने से विचलित न होना।                        इस श्लोक के पीछे एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है कि पराक्रमी राजा बलि से देवताओं की रक्षा के लिए, वामन रूप में विष्णु ने तीन पग भूमि मांगी जो बलि ने प्रमादवश स्वीकार कर ली।                  तुरन्त विराट होकर विष्णु ने पृथ्वी और पाताल ले लिया। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना सिर आगे कर दिया...

जंगल जीवेषणा

  बाघ-द्वीप की जंगल जीवेषणा                           सिंहावलोकन             जंगल जीवेषणा का अर्थ है "जंगल में जीने की कला, जीवन यापन का उद्यम,  जंगल के वातावरण के अनुकूल जीवन शैली,  जंगल के हिंसक और आक्रामक पशुओं से निपटने का कौशल, जंगल की दुर्गमताओं और दुरूहताओं का ज्ञान आदि। भोजन, पानी, आश्रय, आवागमन, समूह निर्माण और सहजीविता की रीति नीति।       यह बातें उन पर लागू होती है जो जंगल को ही अपना घर बनाकर उसमें रहते हैं लेकिन जंगल के जीवन के अध्येताओं और पर्यटकों के लिए इनकी जीवन शैली और मानसिकता को पढ़ना और उसके अनुकूल अपनी अध्ययन सामग्री जुटाना या आनंद बटोरना  जंगल जीवेषणा के अतिरिक्त बिंदु हैं।         पर्यटकों के लिए सामान्य तौर पर बनी हुई राजकीय वन विभागीय व्यवस्था के अंतर्गत जंगल के सौंदर्य, वन्य प्राणियों को देखना ही ध्येय है। वन्य प्राणियों के अतिरिक्त वनवासी भी पर्यटन का लक्ष्य होना चाहिए था लेकिन आधुनिक काल में वनवासियों ...