एक चतुष्पदी , (चौपड़, चौसर)...तीसरी पंक्ति के मुक्त होने से- मुक्तक , टुकड़ा या क़ता (क़िता) और पूरी ग़ज़ल ० जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया। मिले हर तरफ़ खंढर क़िले, मैं जहां गया, मैं जिधर गया। बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा,थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम, रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया। @ कुमार, २८-३० मई २५ 0 और ये ग़ज़ल , (छन्द पूर्णिका, निपुणिका, बहरे कामिल मुसम्मन सालिम, रुक्न- मुतफ़ाइलुन) ० जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया। मिले हर तरफ़ खंढर मुझे, मैं जहां गया, मैं जिधर गया। बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा, थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम, रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया। जो भी सोचता,जो भी बोलता,कहा ख़ुद से,ख़ुद ने सुना किया, मैं रहा ख़ुदी से ख़ुदा तलब, मेरा हर असर मेरे सर गया। मेरी आरज़ू थीं मुहब्बतें, मुझे हर क़दम मिली नफ़रतें, मेरी चाहतें हुईं चाक ...
अच्छा लगता है, क्यों लगता है? यह सब अच्छा लगता है कि किसी को साहित्य का पुरस्कार मिला। अपने प्रिय गीतकार लेखक साहित्यकार को मिलनेवाले ये पुरस्कार हमें ख़ुशी के सिवाय और क्या देते हैं? वास्तव में हम उनसे चाहते भी क्या हैं? फिर क्यों अच्छा लगता है? हम तो सिर्फ़ एक साधारण पाठक हैं या उस क्षेत्र के प्रति रुचिवान लोग हैं। उसे जानते नहीं, वह हमें नहीं जानता। फिर क्यों होती है यह प्रसन्नता? इसकी क्या सार्थकता है हमारे जीवन में? जिसे मिला है उसके जीवन में इसकी सार्थकता हो सकती है। उसका उसे लाभ होगा, उसकी प्रतिष्ठा होगी। हमारा क्या? बैठे बिठाए की यह निरर्थकता किसलिए? यह इसलिए क्योंकि यह हमारे जीवन के उस रुझान की प्रसन्नता है, जिससे जुड़कर या जुड़े रहकर हमें प्रसन्नता होती है। इसी प्रसन्नता के लिए अथवा इसी प्रसन्नता के भरोसे तो जीवन में गतिशीलता आती है, सक्रियता आती है, जीवन हल्का बना रहता है। यही इस प्रसन्नता की सार्थकता है। एक अदृश्य, अनदेखी, अनाकार, अभौतिक मात्र आत्मिक अस्तित्व रखनेवाली यह प्रसन्नता इसलिए भी सार्थक है क्योंकि जो कुछ भी भौतिक मिलता है उसकी सार्थकता भी...