कबीर के निंदक और साबुन की शोध-गाथा ० हम निरन्तर जटिल से जटिलतम समाज में परिवर्तित होते रहते हैं। यह हमें वरदान भी है और अभिशाप भी। हम अमेरिका के भी दोस्त हैं और रूस के भी। सऊदी अरब से भी हमारे अच्छे संबंध हैं और ग्रेट ब्रिटेन से भी। हम तीसरे विश्व के सबसे विश्वसनीय राष्ट्र हैं जिसके अपने ही अंदर से निकले पाकिस्तान से अच्छे संबंध नहीं हैं। जैसे रूस के सम्बंध उसकी कोख से जन्मे यूक्रेन से नहीं हैं। जैसे फिलिस्तीन की अपनी पसली गाज़ा से रिश्ते अच्छे नहीं हैं। यह हमारे विकास का परिणाम है। ज्यों ज्यों हम विकसित होते जाते हैं वैसे वैसे हम दूसरे का अस्तित्व और प्रगति बर्दास्त नहीं कर पाते। दूसरे की प्रगति से हमारा कोई नुकसान नहीं है, लेकिन फिर भी हम सहन नहीं कर पा रहे। यह हमारा अंदरूनी मामला है। बाहर तो हमारा विकास दिखाई दे रहा है, मगर अंदर की जंग, अंदर की रस्ट (rust) बढ़ी जा रही है। हमने आभासी तौर पर मान लिया है कि हम बहुत विद्वान, बहुत ज्ञानवान हो गए हैं, लेकिन एक पुरानी परखी के आईने में देखते ही हमारी पोल खुल जाती है। अतीत कहता है कि 'या विद्या सा मुक्तये', अर्थात वही विद्या है जो