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राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

"नर हो न निराश करो मन को।"

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

3 अगस्त को 'साकेत' के कवि, राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की जयंती थी। जिन साहित्यकारों ने खड़ी बोली को खड़ा किया है, उनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद के साथ साथ मैथिलीशरण गुप्त का नाम गर्व से लिया जाता है। तीनों बिल्कुल अलग-अलग धाराओं के मल्लाह थे। मैथिली शरण गुप्त ने प्रसाद की तरह भारतीय लोकवृत्ति पर पारंपरिक कथाओं को अधिक सरलता से प्रस्तुत किया। साकेत उनकी प्रसिद्धि है और महावीर प्रसाद द्विवेदी का शिष्यत्व उनकी नींव। दरअसल द्विवेदी जी के एक निबंध 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता' ने ही उनको 'साकेत' लिखने को प्रतिबद्ध किया और राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाए। इसी बिना पर वे राज्यसभा के सदस्य भी हुए और पद्मविभूषत भी। नि:संदेह, इस तरह वे एक साहित्यिक महापुरुष थे।

एक समय ऐसा कहा जाता था कि महापुरुष किसी जाति, धर्म, समाज, सम्प्रदाय, प्रदेश और देश की सीमाओं तक  सीमित नहीं होता। लेकिन आजकल ऐसा नहीं है। 'वाद' और 'राजनीति' के इस भ्रांत और आक्रांत युग में किसी विभूति को याद करना भी 'वाद विवाद' का विषय है और वह 'राजनीति' के लांछनों से मुक्त भी नहीं रह पाता। यहां तक कि 'स्मृतियां' भी अब राजनैतिक साम्प्रदायिक संगठनों, जातीय समितियों, वाद और गुटों के दलदलों में या तो डूब गईं हैं या निष्कासित हो गईं हैं।

मैं पिछले दस दिनों से साहित्य-नगरी और संस्कारधानी में बैठा फड़फड़ा रहा हूँ कि कहीं से किसी साहित्यिक हलचल की ख़बर मिले और मैं दर्शकदीर्घा में बैठक ज्ञान लाभ ले सकूं। जिन दो साहित्यिक विभूतियों से मैंने संपर्क किया वे भोपाल में होने की व्यस्तता और विवशता बता चुके थे। वे सात आठ वर्षों की साहित्यिक गतिविधियों में जब भी मिले आत्मीयता और सम्मानपूर्वक मिलते रहे। चाहकर भी मैं ऐसा नहीं कह सकता कि आत्मीयता और सम्मान का समय समाप्त हो गया। विवश और व्यस्त जनों को अच्छा नहीं लगेगा। हमें सबकी  निजी मानसिक व्यस्तता और विवशता का सम्मान करना चाहिए। इसलिए मैंने भी उन्हें कष्ट नहीं दिया और वे भी कोई औपचारिक पड़ताल न कर सके।
बहरहाल, पहले इस नगर में सम्पर्क का विस्तार और साहित्यिक चर्चा का केन्द्र  'कॉफ़ी हाउस' हुआ करते थे। फिर सम्पर्कोत्सुकों के अलग अलग 'हाउस' हो गए तो  'कॉफी हाउस' केवल खाने के कारखाने हो गए। अलग अलग विचारधाराओं ने अलग-अलग बैठकें करनी शुरू कर दी। पूरा देश 'इस तरफ के समूह', 'उस तरफ के समूह' या 'अन्य समूह' में बिखर गया। महापुरुषों का राजनैतिक और सामाजिक उपयोग होने लगा। वे जातीय और संप्रदाय की 'वस्तु' हो गए। राजनीतियाँ उनका अभिनंदन या निंदा करने लगीं। होते होते उनके केवल चित्र रह गए और केवल विचित्र लोग ही उनकी चर्चा करने लगे। निराला और आज़ाद के वास्तविक नाम और उपनाम के साथ कुछ लोगों का जातीय औदात्त क्रियाशील हो गया। प्रेमचंद को पसंद करना वाद हो गया। महापुरुषों पर चर्चा करना अब जोखिम और ख़तरे का काम हो गया। सामाजिक सम्मेलन अब उन पर कार्यक्रम आयोजित कर आर्केस्ट्रा या नाच करवाने लगे।

कहीं कहीं, कभी कभी, किसी किसी जागरुक समाज में अगर अपने समाज के कवि या साहित्यकार को याद किया जाता है तो वह भी स्थानीय कवियों की 'उत्साहित प्रचार वृति' के कारण, स्थानीय कवि-सम्मेलन में तब्दील होता ज़रूर है, 'मगर  सोशल मीडिया और सम्मेलनों में जुड़ी विभूतियों के कारण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय भी हो जाता है।

गुप्त जी पर मेरे वास-नगर के पड़ोसी नगर में गुप्त वंशीय समिति प्रतिवर्ष गुप्त जी पर विविध कार्यक्रम करवाती है। इस कार्यक्रम में मेंहदी, रंगोली, चित्रकारी, नृत्य, गायन आदि प्रतियोगिताएं मुख्य होती हैं। नगर में कुछ स्थानीय अन्तर्राष्ट्रीय कवि होते ही हैं, अतः उनकी प्रेरणा से कवि सम्मेलन भी होता है जो गुप्त जी को साहित्यिक श्रद्धांजलि के रूप ले लेता है।

चूंकि इन दिनों कुछ दिनों के प्रवास पर मैं संस्कार धानी में हूँ। अतः बहुत उत्सुक होने पर भी एक समाचार पढ़ने के पाठक की भूमिका तक मैं सीमित हो गया।  यहां भी गुप्त जी की जातीय और सामाजिक संस्था ने कार्यक्रम किया। महापुरुषों को इस प्रकार स्मरणीय बनाए रखने के लिए यह संस्था निःसन्देह साधुवाद की हक़दार है। हालांकि मेरी दृष्टि में देश का यह कर्त्तव्य था कि वह उस कहावत को जीवित रखता जिसके हिसाब से "महापुरुष किसी जाति, धर्म, समाज, सम्प्रदाय, प्रदेश और देश की सीमाओं तक सीमित नहीं होता।" परन्तु शायद यह संभव नहीं।
इस क्षण गुप्त जी कि एक कविता याद आ रही है...
"नर हो न निराश करो मन को।
कुछ काम करो, कुछ काम करो।"

@ रा रा कुमार, 05.08.23


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