बाल कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान के विशेष संदर्भ में          -  कभी कभी और प्रायः सोचता हूं कि मीठा अंत में क्यों परोसा जाता है? समारोह का अध्यक्ष आख़री में क्यों बोलता है? प्रथम विजेता की घोषणा अंत में ही क्यों की जाती है? सबसे ज्यादा और  प्रभावशाली कवि को बाद में ही क्यों प्रस्तुत किया जाता है? नव-रसों में श्रृंगार को पहला स्थान क्यों दिया गया तथा औचकदन कूद पड़नेवाले वात्सल्य रस को दसवें रस के रूप में क्यों दिया गया?  यदि इन सब सवालों से बचकानापन टपक रहा है तो टपक रहा है। इस बचकानेपन को छोड़ पाना या इससे अलग हो पाना संभव होता तो ‘झांसी की रानी’ के गौरव का गान करनेवाली कवयित्री सुभद्राकुमारी चैहान का मातृत्व कभी ‘कदंब के पेड़’, कोयल, खिलौनेवाला और धूप और पानी जैसे कालजयी बाल-गीतों की तरफ़ नहीं मुड़ा होता।  मेरा बचपन जिस बालगीत को ‘मां की आरती’ की तरह गाकर तृप्त होता रहा है, वह हर बच्चे की तरह मेरा अपना आत्मीय गीत बनकर दिल में रच-पच गया था। यह बहुत बाद में मुझे पता चला कि वह गीत ‘झांसी की रानी’ गानेवाली तथा ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ सिखानेवाली स्वतंत्रता-समर की वीरांगना कवयि...