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Showing posts from May, 2011

अमर घर चल

कहानी आज 'मदर्स डे' है ..यह कहानी शायद 'मां' के सम्मान में कुछ कहने का एक प्रयास हो !!! अमर का बस्ता टूटी हुई बद्धियोंवाला झोला है। कहीं कहीं से फटा भी है। टूटी बद्धी उसने दूसरी साबुत बद्धी से बांध ली है। हाथ में उसे लेते ही वह स्कूल जाने के लिये तैयार हो जाता है। स्कूल जाते समय उसे अपेक्षा रहती है कि एक ताजा रोटी और चाय मिल जाये। उसका मौन आरोप यह है कि सौतेली भाभी ने उसे काली चाय दी है और बासी रोटी दी है। सौतेली भाभी के बच्चों की चाय में दूध भी है और उनकी रोटी से भाप निकल रही है। अमर जानता है कि विधवा मां दिन निकलने के पहले से मवेशियों की सेवा कर रही है। सौतेले बेटे के घर में अपने रहने लायक वातावरण बनाए रखने के लिए और अपने अमर को बासी रोटी के जुगाड़ के लिए उसे जानवरों को संभालना लाभ का सौदा लगता है। अमर ने देखा कि जिस समय उसके हाथ में बासी रोटी और काली चाय आई उस समय भी मां उपले थाप रही है।अमर की इच्छा में कई बार यह ख्याल हमारी मांग है कि तरह यह आया है कि मां सौतेली भाभी के स्थान पर रोटी बनाए ताकि भाप उड़ाती रोटियों और बासी रोटी के बीच कोई भेदभाव और ईष्र्या न रहे। मगर ...