Skip to main content

Posts

Showing posts from October, 2024

अदम गोंडवी

 'धरती_की_सतह_पर'  खड़ा ज़मीनी कवि : अदम_गोंडवी आज, 22 अक्टूबर को मानवता के दर्द और माटी की बू-बास के कवि अदम गोंडवी की जयंती है। उनके पहले हिंदी ग़ज़ल संग्रह 'धरती की सतह पर' से उनकी एक ग़ज़ल उन्हीं को समर्पित इन शब्दों के साथ-         साहित्य और वैचारिक विमर्शों के पाखंडों और वादों की संकीर्णता पर उनकी पैनी तुतारी भी बेमुरव्वत चली। एक साहित्यिक के दायित्वबोध के अंतर्गत वे मानवता के दर्द, माटी की बू और कालखंड के इतिहास को पाठ्यक्रम के रूप में नियोजित करते रहे। उन्होंने उपेक्षितों और दलितों की करुणा के साथ मुद्राराक्षस और रैदास के साथ स्वर से स्वर मिलाकर लिखने को कवि की निष्ठा और वैचारिक ईमानदारी को मानदंड बनाया। प्रेमचंद और ओशो के अंतर को स्पष्ट करते हुए परम्परा पोषकों और परम्परा भंजकों के बीच की विभाजक रेखा को  चिंहित किया। लगे हाथ उन्होंने कामी और भोगी कवियों की भी खिंचाई की है और उनके द्वारा मांसल-प्रेम को शाश्वत सत्य बताकर, श्रृंगार की कविताओं को सार्थक कहकर, पाठकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व की उपेक्षाकर, मूल्यहीन लोकप्रियता के पीछे भागने के भोगवाद पर ...

एक हिंदुस्तानी गीत

  एक  हिंदुस्तानी गीत जिसकी लाठी भैंस उसी की, है ज़मीन बलवान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। मंचों पर जो चल निकले वो, कविता चोरी हो जाए। और पकड़ में आ जाए तो सीनाज़ोरी हो जाए।। आज अभी की बात नहीं यह सदियों से होता आया। हमने कविता की लाशों पर कवियों को रोता पाया।। गोद नहीं लेता है कोई, गुप्त अपहरण करता है। दुल्हन को कुछ पता न चलता कौन संवरण करता है।। ऐसे चलती है क्या दुनिया? यही तुम्हारी निष्ठा है? यही कीर्ति कहलाती है क्या? यह सम्मान प्रतिष्ठा है? चिंता नहीं किसी को कोई, अपने स्वाभिमान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। रूप रंग संभ्रांत, शिष्ट है, कोमल मीठी वाणी है। कौन देखकर नहीं कहेगा सम्मुख सज्जन-प्राणी है। आंख मूंदकर उस पर किसका, नहीं भरोसा हो जाए। वही  आंख का काजल चोरी करके चंपत हो जाए। चेहरा पढ़ लेने का दावा करने वाले हार गए। माथे लिखा नहीं पढ़ पाए, पढ़े ग्रंथ बेकार गए। जीवन एक सराय है लेकिन अनुभव यही बताता है। सच्चा राही वही जो भोजन, स्वयं पकाकर खाता है। क्योंकि हमें ही रक्षा करनी, है अपने सामान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदु...

महाप्राण निराला

  महाप्राण निराला     हिंदी साहित्य के काल-विभाजन में छायावाद एक युगीन पड़ाव है। इस युग की प्रतिभा चतुष्टयी में आयु-क्रम से प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी ये चारों अपनी अपनी नितांत भिन्न प्रवृत्तियों के लिए जाने जाते हैं। प्रसाद अपने इतिहास बोध के लिए, निराला अपने प्रखर यथार्थ बोध के लिए, पंत अपने प्रकृति प्रेम और महादेवी करुणा की अभिव्यक्ति के लिये।            प्रतिभा का द्रवीकरण नहीं होता इसलिए उनका यौगिक नहीं बनता। एक मिश्रण की तरह किसी काल-पात्र में रहकर भी अपने वस्तु-स्वरूप, विचार-रंग और ध्येय-आस्वाद के कारण वे अलग से पहचान में आ जाती हैं।           आज की तिथि/तारीख 15 अक्टूबर को निराला जी की मृत्यु हुई थी। यह एक प्रसंग हो सकता है कि उनकी याद की जाए, उनकी रचनाओं की चर्चा की जाए। लेकिन जिनकी प्रतिभा, लेखन और वैचारिकी ने अपने युग में रचनात्मक क्रांति की है, वे क्या किसी दिन, दिनांक या प्रसंग की प्रतीक्षा करते हैं? न जाने कब कब और किस किस प्रसंग में वे याद आते...

गीतल एक ग़ज़ल

हिंदी ग़ज़ल : गीतल यूं तो जीवन में कई नामी गिरामी आये। नमकहलाल भी आये हैं, हरामी आये। नाला करता हूँ तो सय्याद लगाए कोड़े, आह भरता हूं तो सीने में सुनामी आये। यक़ीन कर जिन्हें सौंपी थी मकां की चाबी, वो उसी घर के एक दिन बने स्वामी आये। कुछ अजब बात ही देखी है इन दिनों मैंने, जहां पे लानतें आनी थी, सलामी आये।   चाहता हूं कि बनूँ पंछी, हिरण या घोड़ा, हर तरफ़ रोड़े उसूलों के लगामी आये। पहले हर बात में दिखतीं थीं हजारों ख़ूबी, आज दिखने में हरिक बात में ख़ामी आये।  ये वो षड्यंत्र हैं, तोड़े हैं जिन्होंने सपने, गए दिनों यही साष्टांग प्रणामी आये।  @कुमार ज़ाहिद, ११.१०.२४, प्रातः ७.३७

कविता दिवस

  4 अक्टूबर के दिवस और कविता ... राष्ट्रीय कविता दिवस  कहीं प्रेयसी बन बैठी है, कहीं राजमाता है।  मन का हर अहसास इसी के, सरगम में गाता है।   सब के मन का भेद जानती, सबके मन में रहती- सुख दुख मिलन विरह में अपनी, साथी यह कविता है।                  (०३.१०.२४, पहला मासिक गुरुवार) राष्ट्रीय शारीरिक भाषा दिवस आंखें, भौंहें, होंठ, नाक, सब, मन के प्रखर प्रवक्ता हैं। मन के सभी मामलों के ये अधिकारी अभिवक्ता हैं। सबकी अपनी अपनी भाषा, गोपनीय संदेशे हैं, जीभ, हथेली इस प्रकरण में, सीधे सादे वक्ता हैं।                             @कुमार, ०४.१०.२४, राष्ट्रीय वोदका दिवस दस्तूर ही पीना है तो नज़रें मिला के पी।  बोतल की तली में है तिश्नगी हिला के पी। रम, वोदका, फैनी ये किसी से तो बुझेगी, हर क़िस्म की शराब अय मुशरिफ़ मिला के पी।      ...